ग़ज़ल
ग़ज़ल
कई घर हो गए बरबाद ख़ुद्दारी बचाने में
ज़मीनें बिक गईं सारी ज़मींदारी बचाने में
कहाँ आसान है पहली मुहब्बत को भुला देना
बहुत मैंने लहू थूका है घरदारी बचाने में
कली का ख़ून कर देते हैं क़ब्रों की सजावट में
मकानों को गिरा देते हैं फुलवारी बचाने में
कोई मुश्किल नहीं है ताज उठाना पहन लेना
मगर जानें चली जाती हैं सरदारी बचाने में
बुलावा जब बड़े दरबार से आता है ऐ 'राना'
तो फिर नाकाम हो जाते हैं दरबारी बचाने में
दिल ही दुखाने के लिए आ
रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ
आ, फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ
पहले से मरासिमन सही, फिर भी कभी तो
रस्मो-रहे-दुनिया ही निभाने के लिए आ
किस-किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम
तू मुझसे ख़फ़ा है, तो ज़माने के लिए आ
अब तक दिले-ख़ुशफ़हम
को हैं तुझसे उमीदें
ये आख़िरी शम्ऐं भी बुझाने के लिए आ
इक उम्र से हूँ लज़्ज़ते-गिरियासे भी महरूम
ऐ राहते-जां मुझको रुलाने के लिए आ
कुछ तो मेरे पिन्दारे-मुहब्बत
का भरम रख
तू भी तो कभी मुझको मनाने के लिए आ
माना कि मुहब्बत का छुपाना है मुहब्बत
चुपके से किसी रोज़ जताने के लिए आ
जैसे तुम्हें आते हैं न आने के बहाने
ऐसे ही किसी रोज़ न जाने के लिए आ
उसमें गहराई समंदर की कहाँ
वो यक़ीनन दर्द अपना पी गया
जो परिन्दा प्यासा रहके जी गया
झाँकता था जब बदन मिलती थी भीख
क्यूँ मेरा दामन कोई कर सी गया
जाने कितने पेट भर जाते मगर
बच गया खाना वो सब बासी गया
उसमें गहराई समंदर की कहाँ
जो मुझे दरिया समझकर पी गया
भौंकने वाले सभी चुप हो गए
जब मोहल्ले से मेरे हाथी गया
चहचहाकर सारे पंछी उड़ गए
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