इस की छठ पुजा पर हार्दिक शुभकामनायें
जिसमें सभी प्रकार के मौसमी फल, कले की पूरी गौर (गवद), इस पर्व पर खासतौर पर बनाया जाने वाला पकवान ठेकुआ (बिहार में इसे खज़ूर भी कहते हैं) नारीयल, मूली, सुथनी, अखरोट, बादाम, इस पर चढ़ाने के लिए लाल/पीले रंग का कपड़ा, एक बड़ा घड़ा जिस पर 12 दीपक लगे हो, गन्ने के बारह पेड़ आदि। पहले दिन महिलाएँ अपने बाल धो कर चावल, लौकी और चने की दाल का भोजन करती हैं और देवकरी में पूजा का सारा सामान रख दिया जाता है, यहीं से छठ पूजा का व्रत शुरू हो जाता है। ‘देवकरी’ स्थान पर काफी सावधानी रखी जाती है। इसे छठ मंईया का पूजा स्थल भी कहा जा सकता है।
जय छ्ठ मंईया की। इस त्यौहार की शुरूवात नहाय-खाय, और खरना से शुरू होती है।
आईये सबसे पहले यह जाने की नहाय-खाय और खरना क्या होता है।
पर्व के पहले दिन पूजा में चढ़ावे के लिए सामान तैयार किया जाता है जिसमें सभी प्रकार के मौसमी फल, कले की पूरी गौर (गवद), इस पर्व पर खासतौर पर बनाया जाने वाला पकवान ठेकुआ (बिहार में इसे खज़ूर भी कहते हैं) नारीयल, मूली, सुथनी, अखरोट, बादाम, इस पर चढ़ाने के लिए लाल/पीले रंग का कपड़ा, एक बड़ा घड़ा जिस पर 12 दीपक लगे हो, गन्ने के बारह पेड़ आदि। पहले दिन महिलाएँ अपने बाल धो कर चावल, लौकी और चने की दाल का भोजन करती हैं और देवकरी में पूजा का सारा सामान रख दिया जाता है, यहीं से छठ पूजा का व्रत शुरू हो जाता है। ‘देवकरी’ स्थान पर काफी सावधानी रखी जाती है। इसे छठ मंईया का पूजा स्थल भी कहा जा सकता है।
जय छ्ठ मंईया की। इस त्यौहार की शुरूवात नहाय-खाय, और खरना से शुरू होती है। आईये सबसे पहले यह जाने की नहाय-खाय और खरना क्या होता है।
नहाय-खाय: इस पर्व के पहले दिन नहाय-खाय के दौरान व्रतियों द्वारा स्नान कर कद्दू की सब्जी व अरवा चावल का प्रसाद ग्रहण किया जाता है।
इस अवसर पर व्रती 24 घंटे निर्जला उपवास रखेते हैं।
तत्पश्चात संध्या अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देंगे।
चार दिवसीय इस महापर्व के दूसरे दिन बड़ी संख्या में श्रद्धालु आस-पास के नदी, तालाब या सरोवरों में स्नान कर खीर-पूड़ी का प्रसाद भगवान सूर्य को अर्पण करतें हैं।
सूर्यास्त के पूर्व व्रतियों ने भगवान सूर्य को नमन करते हुए मनोवांछित फल की कामना की जाती है।
नवनिर्मित चूल्हे पर आम की लकड़ी के द्वारा प्रसाद बनाए जाते हैं।
इसके साथ ही प्रारंभ हो जाता है
व्रतियों के घर ‘खरना का प्रसाद’ प्राप्त करने के लिए श्रद्धालुओं के आने-जाने का सिलसिला।
देर रात तक श्रद्धालु व्रतियों के घर आते-जाते हैं।
खरना: खरना के अवसर पर दूध और गुड़ से बने खीर प्रसाद (तस्मई) का काफी महत्व होता है
व्रती इसे ही ग्रहण करतें हैं,
इसके साथ ही शुरू हो जाता है 36 घंटे का निराहार व्रत इस महाव्रत की बहुत बड़ी मान्यता होती है,
इस व्रत को करने वाले महिला, पुरुष, बच्चे को समाज में काफी मान और श्रद्धा से देखा जाता है।
इस महापर्व के तीसरे दिन व्रतधरी अस्ताचलगामी सूर्य को नदी या तलाब में खड़ा होकर प्रथम अर्घ्य अर्पित करते हैं।
छठ पर्व के चौथे और अन्तिम दिन पुनः अदयीमान सूर्य को दूसरा अर्घ्य देने के साथ ही यह पर्व समाप्त हो जाता है।
इस पर्व में ‘ठेकुआ’ (आटा+चीनी या गुड़ से तला हुआ), ईख, मुली, केला, सूप, दौरा, दीप, कलश, पंखा, झाड़ू का विशेष महत्व होता है।
छठ पुजा के अवसर पर लोग श्रद्धा से प्रसाद भिक्षा के रूप में मांग कर ग्रहण करते हैं।
छठ पर्व के त्यौहार में भिक्षा मांगने का प्रचलन भी है।
इस पर्व के अवसर पर यदि कोई आपके सामने भिक्षा मांगने आ जाये तो आपकी मनोकामनाएं भी भिक्षा ग्रहण व्रती के साथ स्वतः जुट जाती है।
आपको कभी ऐसा अवसर मिल जाये कि जब कोई छठव्रती आपसे भिक्षा मांगने आ जाये तो अपनी मनौती के साथ उसके सूप पर भिक्षा दे देना चाहिए।
आपकी मनोकामना ठीक उसी क्रम में पूरी हो जाती है
जिस क्रम में आपने भिक्षा दिया है।
ठीक इसी प्रकार कभी छठ मंईया का प्रसाद मिले तो इसे श्रद्धा से ग्रहण करने से कहते हैं कि “छठ मंईया प्रसन्न होकर आपकी सभी मनोकामनाओं को पूरी कर देती है।
यह बात सही है कि इस पर्व का महत्व बिहार, यु.पी के लोगों में ही अधिक देखा जाता है।
बिहार,U.P. में रहने वाले बंगाली, मारवाड़ी, और गुजराती बड़ी संख्या में इस त्यौहार में शामिल ही नहीं होते कई परिवार तो यह पर्व मनाने भी लगे हैं।
इस पर्व में लोकगीतों का काफी महत्व आज भी देखा जाता है।
इस त्यौहार के लोकगीतों को ध्यान से सुना जाये तो मानो समस्त प्राणियों की मंगलकामना गीत हैं ये लोकगीत। इस पर्व में कई जगह गाय(cow) से भी व्रत कराया जाता है।
इस पर्व की इतनी बड़ी मान्यता है कि कई विद्वान, साहित्यकार, इस पर्व के डाले(दौरी बांस की बनी टोकरी) को (जिसमें प्रसाद, सूप, अर्घ्य देने का समान रखा जाता है)
को अपने सर पे रख कर घाट तक ले जाते हैं।
कई व्रतधारी तो पूर्ण रुप से दण्डवत प्रणाम करते हुए घाट तक जाते हैं।
कहतें हैं कि भारत विचित्रता का देश है,
यहाँ की संस्कृति विभिन्न स्थानों में भिन्न-भिन्न प्रकार से बदल जाती है,
जिस तरह यहाँ की बोलियों में कई तरह की मिठास देखने को मिलती है।
बनारस की बोली हो या लखनवी अंदाज, भौजपुरी हो या मैथिली।
सभी एक से बढ़कर एक हैं। इस चार दिन के त्यौहार में नदी के किनारे मेला भी लगाया जाता है,
कई सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी किया जाता है। हाँ !
इस अवसर को कुछ राजनीति करने वाले दल अपने लाभ के लिये भुनाने का प्रयास भी करते पायें जाते है। जिसके चलते अन्य प्रान्तों में इस त्यौहार को राजनैतिक रंग दिया जाने लगा है।
केरवा जे फरेला घवद से ओह पर सुगा मंडाराय
जे खबरी जनइबो आदित से सुगा देले जुठियाए
जे मरबो रे सुगवा धनुक से सुगा गिरे मुरछाय,
जे सुगनी जे रोवे ले वियोग से आदित होइ न सहाय।
जिस लोकगीतों मे एक ‘सुगनी’ के दर्द को इतनी मार्मिक्ता से दर्शाया गया है, उस बिहारी समाज को कभी बंगाल, महाराष्ट्र तो कभी दिल्ली में प्रताड़ना छेलना पड़ता है।
शायद इस समाज को देखने का नज़रिया हम अभी तक नहीं बदल पाये हैं।
हम भले ही अपने आपको सभ्य समाज का अंग समझते हों पर हम से कहीं ज्यादा यह समाज मुझे सभ्य दिखाई देता है।
हमारी भाषा में तो केवल विष ही विष झलकता है। वह राज ठाकरे हो या शीला दीक्षित चाहे वह लालू यादव हो या नितिश कुमार, सब के सब इस समाज के दर्द को आज तक समझने का कभी भी प्रयास नहीं किया, आखिर क्या कारण है जो समाज संस्कृति रूप से हम से भी कहीं ज्यादा शिक्षित है,
वह आज हम सबके दया का पात्र बना हुआ है।
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