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ख्वाब

लागा दो आग जन्नत को,

जहाँ न किसी को प्यार मिले;

चुराओं आँख आँख से,

जिनसे गमें-खार मिले |


ना रखो बाँध कर कातिल जुल्फों को, 

हँसी चेहरा मुरझा जाएगा ; 

खेल कर नागिन-सी लहराती जुल्फों से, 

ये, कमल-सा खिल जाएगा |



ऐ हँसी ख्वाबों कि दुनिया, 

युँ रूठों न दिवानों से; 

तुम्हीं तो हो इनके प्यार दौलत; 

लुटो ना हकीकत के अफसानोँ से |



तुम क्या जानो,

दिवानों के जीने की एक यही है ‘दवा’;

छीनो नाइसे यूँ अश्कों भरे पैमाने से;

माना कि ख्वाब- ख्वाब हैं, आबाद हो नहीं सकते,

पर ये तो कोई बात नहीं,की बदला लो परवानों से |


बेगानों से क्या शिकवा,

बेगाने तो बेगाने थे,

शिकवा तो मगर दिलसे है,

मेरा होकर भी बेगाना हो गया |

संतोष कुमार झा
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