दद्दू की चिट्ठीकहानियां
उबलते दूध में पानी के कुछ छींटे जो काम करते हैं,
ठीक वैसा ही असर पापा के पत्र से हुआ।
विनीत और मधुर एकाएक शांत हो गए थे।
दो दिन से गृहयुद्ध चल रहा था।
दो दिन से गृहयुद्ध चल रहा था।
यूं उनके बीच जंग की शुरुआत शादी के कुछ दिन
बाद ही हो गई थी।
उन्हीं दिनों विनीत की नौकरी का छूटना भी कोढ में खाज
साबित हुआ।
उसके मम्मी-पापा उनके मध्यस्थ बने और यथासंभव उनकी आर्थिक
जरूरतें भी पूरी करते रहे।
अंतत: साल भर की बेकारी के बाद विनीत को मुंबई
में नौकरी मिल गई,
उन्हीं दिनों कनु का जन्म हुआ था।
अब नन्हा-अबोध कनु मां-बाप के बीच की कलह का चश्मदीद गवाह था।
कभी-कभी
उनके गुस्से का शिकार भी बनता।
इधर वह रो रहा था, उधर गुस्से से मधुर का
पारा चढ रहा था। पालना आता भी है तुझे।
फुल टाइम सर्वेट है और रात भर
इसके डायपर मैं बदलता हूं,
फिर भी हाय-हाय!
तुझे तो सोने से ही फुरसत नहीं
मिलती।
गुस्से से बोला विनीत। हां! मैं सोती रहती हूं
और खाना तुम्हारी
मां बनाकर रख जाती है।
मां को बीच में घसीटा तो..
विनीत तमककर उसकी ओर
गुर्राया था।
पर अचानक वह शांत हो गया।
मारकर दिखा..
मुझे भी ईश्वर ने दो हाथ दिए हैं,
मुझे भी ईश्वर ने दो हाथ दिए हैं,
चेहरा नोंच लूंगी।
मैं
वैसी लडकी नहीं हूं,
जो चुपचाप सब सहती रहूंगी।
विनीत बिल्कुल शांत हो गया
था।
उसकी आंखें नम थीं।
दरअसल उसे अपने पापा का भेजा गया पत्र याद आ गया
था,
जो उसके ऑफिस के पते पर आया था।
पत्र निकालकर उसने मधुर की ओर फेंक
दिया।
विनीत की डबडबाई आंखें पत्र देखकर किसी अनहोनी की आशंका से सकपका
गर्इं।
मधुर ने आगे बढकर पत्र उठा लिया और पढने लगी।
प्यारे बच्चों! पत्र पाकर तुम्हें आश्चर्य तो होगा
कि आज के
हाइटेक जमाने में पत्र!
परन्तु मुझे लगता है
कि विस्तार से सोच-विचारकर
सहज भाव-से अपनी बात कहने का इससे अच्छा दूसरा माध्यम नहीं।
अस्तु!
पत्र
लिखने का कारण यही था
कि तुम लोगों से फोन पर बातें तो होती रहती हैं,
पर हमारा मन नहीं भरता।
कि तुम लोगों से फोन पर बातें तो होती रहती हैं,
पर हमारा मन नहीं भरता।
यही आस रहती है कि बातें हों,
जिससे तुम्हारी चुहल,
खिलखिलाहट और हंसी सुनाई दे।
तुम्हारी बातों में जीवन के प्रति भरपूर
उत्साह महसूस हो।
घर-बाहर, खाना-पीना,
सोना-जागना, कहना-सुनना,
सोना-जागना, कहना-सुनना,
तुम्हारा
सब कुछ खुशियों का स्पर्श पाकर प्रस्फुटित हो।
तुम्हें भी कनु को देखकर
ऐसा ही
लगता होगा कि वह हर-पल सानंद रहे,
लगता होगा कि वह हर-पल सानंद रहे,
किलकारियां मारता फिरे।
वह अभी
अबोध है,
लेकिन हम क्या करें?
हमारे बच्चे बडे हो गए हैं।
उनके दु:ख,
मानसिक हैं।
वे समझदार हैं,
अपने जीवन के अहम फैसले स्वयं किए हैं।
उनसे
बातें करना उतना सरल नहीं रहा।
फिर भी हम चाहते हैं,
उनसे खूब बातें करें,
बातों-बातों में यह अहसास करा
सकें कि बडों के अनुभव मात्र उपदेश या
नसीहत नहीं;
सकें कि बडों के अनुभव मात्र उपदेश या
नसीहत नहीं;
एक युक्ति होते हैं,
जिनसे उनके बच्चों को जिंदगी के
सवाल हल करने में सहायता मिलती है।
सवाल हल करने में सहायता मिलती है।
एक दिन तुम दोनों ने परिजनों की इच्छा के विरुद्ध साथ रहने का निश्चय
किया था।
वह तुम्हारा प्यार था,
समर्पण था एक-दूसरे के प्रति।
यदि वह
निश्छल था,
सही था तो आज तुम्हारे बीच इतनी असंगतियां क्यों हैं?
वही निष्ठा और समर्पण कहां लोप हो गया?
वही निष्ठा और समर्पण कहां लोप हो गया?
यदि तुम्हें लगता है कि निर्णय गलत था,
तो उसे सही सिद्ध करने का दायित्व भी तुम्हारा है।
बच्चों! जीवन-जगत बहुत
पुराना है
और उसमें उतनी ही पुरानी हैं
वस्तु-स्थितियां और भावनाएं।
तुम्हारे साथ जो आज घटा है,
वह भी पुराना है।
अधिसंख्य लोगों के साथ घटता
है।
तुम्हारा रिश्ता अभी गीली मिट्टी-सा है।
उसे एक खूबसूरत आकार देने की
कोशिश करो
ताकि भविष्य में एक सुखद परिवार फल-फूल सके।
इस जगत में सम्पूर्ण स्त्री या
पुरुष की कल्पना करना बेमानी है।
पुरुष की कल्पना करना बेमानी है।
हर
स्त्री-पुरुष में कमियां हैं,
तुम दोनों में भी हैं।
एक-दूसरे की अपेक्षाओं
के अनुरूप स्वयं को बना सको तो बनाओ,
अच्छी बात है।
यदि एक-दूसरे को जैसा
है-वैसा ही
स्वीकार कर लो तो और भी अच्छा है।
स्वीकार कर लो तो और भी अच्छा है।
प्यार की डगर में अविश्वास
की फिसलन से तो
तुम्हें बचना ही पडेगा। रास्ता कठिन है,
तुम्हें बचना ही पडेगा। रास्ता कठिन है,
पर लक्ष्य तक
पहुंचना नामुमकिन भी नहीं।
इम्तिहान तो पास करने ही होंगे,
जिसके लिए तुम
दोनों को अपने बीच से मैं को हटाना पडेगा।
प्यार और मैं कभी साथ नहीं
रहते।
कनु को बहुत सारे चुंबन और तुम दोनों को प्यार भरा आशीष।
पत्र पढकर
मधुर का चित्त धीरे-धीरे शांत हो गया।
कुछ देर सहज सन्नाटा पसरा रहा।
फिर
मधुर ने अधिक सहज होने की खातिर विनीत की ओर देखा।
वह उसी को देख रहा था।
तब मधुर ने पूछा, खाना खाओगे.. परोस दूं।
विनीत ने बिना बोले स्वीकृति में
सिर हिलाया।
कनु के लिए यह अबूझ पल थे।
मम्मी-पापा को शांत देखकर वह मन
ही मन खुश हुआ
और हिम्मत जुटाकर मधुर के पास खिसक आया।
मधुर बोली ले दद्दू
की चिट्ठी!
तू भी पढ।
कनु ने विहंसकर पत्र को उलटा-पलटा फिर दद्दू चित्थी-दद्दू चित्थी बोलता हुआ विनीत की गोद में आ गया।
कनु ने विहंसकर पत्र को उलटा-पलटा फिर दद्दू चित्थी-दद्दू चित्थी बोलता हुआ विनीत की गोद में आ गया।
कुछ दिन बाद एक
सुबह विनीत का मोबाइल बजा तो मधुर ने उठाकर सुना।
रूखा-सा जवाब देकर उसने
फोन काट दिया।
तनाव उसके चेहरे पर तैर आया।
विनीत ने आकर पूछा तो तुनककर
बोली,
तुम्हारी उसी का फोन था।
मैं कहती हूं विनीत,
तुम नहीं सुधरोगे,
तुम
बेशर्म हो गए हो। वह मेरी कलीग है..
फोन कर लिया तो क्या हो गया।
फिर
व्यंग्य भरे लहजे में आगे कहा,
जब उससे रुपये उधार लिये थे,
तब तुम्हें
बुरा नहीं लगा..
तब तो खुद फोन करके घर बुलाती थीं।
दरअसल तुम मतलबी हो,
सेल्फिश।
मधुर ने तिनककर जवाब दिया,
सब बहानेबाजी है।
तुम मुझसे पीछा
छुडना चाहते हो।
मेरे लिए तुम्हारे पास कुछ नहीं है,
प्यार, पैसा, टाइम,
कुछ भी नहीं।
जानता हूं, तुझे सिर्फ पैसा चाहिए..
पैसा।
चाहे जैसे भी आए और तेरे
शौक पूरे हों, बस!
घर में दो मिनट रहना मुहाल कर दिया है तूने..।
ठीक है,
मैं भी जॉब करूंगी और अपनी तरह से जीऊंगी..
देखना!
विनीत ने फिर
पलटवार किया,
कनु को, तेरी मां संभालेगी?
बात बढते-बढते,
गाली-गलौज और हाथापाई तक पहुंच गई।
बात बढते-बढते,
गाली-गलौज और हाथापाई तक पहुंच गई।
कुछ क्रॉकरी टूट गई।
खेलते-खेलते कनु
सहमकर उन दोनों की ओर देखने लगा।
सहमकर उन दोनों की ओर देखने लगा।
फिर उसने खिलौनों में पडी
चिट्ठी उठाई और
मधुर की ओर दिखाकर बोला, मम्मी चित्थी!
मधुर की ओर दिखाकर बोला, मम्मी चित्थी!
दद्दू की
चित्थी।
मधुर आग-बबूला होकर विनीत को जवाब दे रही थी।
विनीत ने भी उतनी ही
विद्रूपता से भरकर कहा,
भाड में जाओ तुम।
उधर कनु अभी भी मम्मी को पुकार रहा था।
उधर कनु अभी भी मम्मी को पुकार रहा था।
वह गुस्से में बिफरती हुई
उसके पास गई और डांटते हुए बोली,
उसके पास गई और डांटते हुए बोली,
चुपकर!
यह ले, दूध पी।
यह ले, दूध पी।
भाड में गई तेरे दद्दू की चिट्ठी!
और फिर उसके हाथ
से चिट्ठी लेकर एक ओर फेंक दी।
से चिट्ठी लेकर एक ओर फेंक दी।
भय के मारे कनु कांप गया।
रोना उसकी आंखों में
उतर आया,
पर वह गुमसुम रहा।
फीडर तो उसके मुंह में था,
लेकिन पता नहीं दूध
उसके गले ;
में उतर भी रहा था या नहीं,
में उतर भी रहा था या नहीं,
लेकिन उसकी नजर अभी भी उस चिट्ठी पर
थी,
जो उड-उडकर धीरे-धीरे खिडकी से बाहर की ओर जा रही थी।
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