पत्थर होने
सें
तो
अच्छा
था,
चला जाता
साथ
उनके,
ऐ, दिल
इस
उजरे
दयार
की
जगह,
शान से
रहता
पहलू
में
उनके |
गम नहीं
चले
गए
वह
जिन्दगी
सें
,
अफसोस, मगर
की
दिल
पत्थर
कर
गए,
मुस्कराएगा, सोचकर
गए
हम
महफिल
में
,
हॅँसना तो
दूर, कमबख्त
धरकना
भी
नहीं |
कभी जिनकी
हॅंसी पर इतराया था,
आज, उन्हीं के पैगामों सें टूट गया |
जब होश नही था
जिन्दगी का,
तो मेरे पास में रहता था,
जब से आया होश तभी से,
“उनके” दामन में चला गया |
* *
* *
चेहरे की
खिलावट पर जिनकी,
यह मचल-मचल कर
जाता था,
आया जो पैगामें रुसवाँ,
तो टूकरे-टूकरे हो गया |
पैगामे-वफा का देख लिफाफा,
कली ज्यों खिल जाता था,
हुआ सामना ‘सूरत’
से,तो
शाम के सूरज ज्यूं डूब
गया |
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