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प्रथम चरित्र दुर्गा कथा


प्रथम चरित्र दुर्गा कथा


दूसरे मुन के राज्यकाल में सुरथ नामक एक बहुत प्रतापी राजा हुए थे
उनका राज मन्त्रियों के दुष्टाचरण के कारण उनके हाथ से निकल गया |

वह राजा व्यथित ह्रदय होकर जंगल में चला गया |

वहाँ उसकी भेंट मेधा नामक मुनि से हुई |

मुनि ने राजा को बहुत आव्क्षस्त किया,
फिर भी राजा का मोह दूर न हुआ |

इन्हीं ऋषि के आश्रम में समधि नामक एक वैश्य से राजा का परिचय हुआ |

राजा की भाँति वैश्य भी अपने परिवार के व्दारा निर्वासित था |

इतना होने पर भी वह वैश्य अपने परिवार के लिए व्याकुल रहा करता था |

इन दोनों मोहग्रस्त व्यक्तियोँ ने मुनि से अपने अज्ञान दूर न होने का कारण पूछा |

तब मुनि ने उतर में कहा कि,महामाया भगवती ही जीवों के चित को अपनी ओर अनायास आकृष्ट कर लेती हैं ओर वही अन्त में कृपापूर्वक भक्तों को वर देकर उनका उध्दार भी करती हैं |

तब राजा सुरथ ने ऋषि से पुछा कि वह महामाया देवी कौन हैं,उनकी उत्पति कैसे हुई ओर उनका प्रभाव क्या हैं ?

राजा से मुनि ने कहा –

“नित्यैव सा जगन्मूर्तिस्तया सर्वमिदं ततम् |

अर्थात् उनकी मूर्ति नित्यस्वरुपा हैं तथा उन्हीं के व्दार सम्पूर्ण जगत् व्याप्त हैं |

परन्तु देवों की अभीष्ट सिध्दि के निमित उनके प्रादुर्भाव का कारण बतलाया हैं |

जब भगवान् विष्णु प्रलयकाल के उपरान्त शेषशय्या पर योगनिद्रा मेंनिमग्न हुए तभी उनके कानों की मैल से मधु ओर कैटभ नामक दो महादैत्य उत्पत्र हुए |

वे दोनों दैत्य भगवान् के नाभि-कमल में स्थित ब्रह्मा जी को मारने के लिए उघत हुए |

तब ब्रह्मा जी ने योगनिद्रा का स्तवन करके प्रसत्र कर उनसे तीन याचनाएँ कीं :
१॰भगवान् विष्णु का जागृत होना, २॰असुरों के संहार के लिए तत्पर होना ओर ३॰असुर को मुग्ध करके नाश कराना |

भगवती की कृपा से भगवान निद्रा त्याग कर उन दैत्यों सें युध्दरत हुए |

तत्पश्चात् उन असुरोंने मोहग्रस्त होकर भगवान् से वर माँगने को कहा ओर अन्त में अपने दिए हुए वरदान के व्दारा ही वे मार डाले गये |

तदनन्तर राजा सुरथ ओर समाधि नामक वैश्य के लिए मेधा मुनि भगवती की उपसना तथा ज्ञानयोग के भेदों का वर्णन करने लगे |

चार शब्दों


बचपन में मेरा था,
जवानी में उनका हो गया,
आया दौरे-बुढापा तो,
दुनिया की भीड़ में खो गया |      
   ******************
पल-भर की होठों की हंसी,
दिल-बहार ले आती थी,
चार शब्दों की बे-वफाईने,
चमन को खिजा में बदल दिया |
*****************
इन्सान क्या चीज हैं,
पैसें वाला ही जाने,
कल तक जिसे दुत्कारते थे,
आज,चले है उन्हें मनाने क्योंकि,
अब वह इन्सान’,
इन्साफ की कुसीं पर बैठा हैं |
****************
खुशी तभी खुशी हैं,
जब खुशी में शरीक होने वाले हो,
गम तभी कम होते है,
जब इन्हे बाँटने वाले 'अपने' हो |
******************
ढलती शाम है 'रूश्ंवा',
दिल मे मिलन की प्यास है,     
तुम्हारी याद  मे 'ईश्वर 'की,
जिन्दगी कितनी उदास है |
***********************
दर्द जुदाई कोई क्या जाने,
कैसे कटते है, पल,लम्हे व दिन,
मुदूदतें हो गई, अब तो,
जीना सीख लिया तुम्हारे बिन |
*******************


पंचतंत्र


(भारतीय साहित्य की नीति कथाओं का विश्व में महत्वपूर्ण स्थान है। पंचतंत्र उनमें प्रमुख है। पंचतंत्र की रचना विष्णु शर्मा नामक व्यक्ति ने की थी। उन्होंने एक राजा के मूर्ख बेटों को शिक्षित करने के लिए इस पुस्तक की रचना की थी। पांच अध्याय में लिखे जाने के कारण इस पुस्तक का नाम पंचतंत्र रखा गया। इस किताब में जानवरों को पात्र बना कर शिक्षाप्रद बातें लिखी गई हैं।)

विद्या बड़ी या बुद्धि?


किसी ब्राह्मण के चार पुत्र थे। उनमें परस्पर गहरी मित्रता थी। चारों में से तीन तो शास्रों में पारंगत थे, लेकिन उनमें बुद्धि का अभाव था। चौथे ने शास्रों का अध्ययन तो नहीं किया था, लेकिन वह था बड़ा बुद्धिमान।

एक बार चारों भाइयों ने परदेश जाकर अपनी-अपनी विद्या के प्रभाव से धन अर्जित करने का विचार किया। चारों पूर्व के देश की ओर चल पड़े। रास्ते में सबसे बड़े भाई ने कहा-हमारा चौथा भाई तो निरा अनपढ़ है। राजा सदा विद्वान व्यक्ति का ही सत्कार करते हैं। केवल बुद्धि से तो कुछ मिलता नहीं।

विद्या के बल पर हम जो धन कमाएंगे, उसमें से इसे कुछ नहीं देंगे। अच्छा तो यही है कि यह घर वापस चला जाए।दूसरे भाई का विचार भी यही था। किंतु तीसरे भाई ने उनका विरोध किया। वह बोला-हम बचपन से एक साथ रहे हैं, इसलिए इसको अकेले छोड़ना उचित नहीं है। हम अपनी कमाई का थोड़ा-थोड़ा हिस्सा इसे भी दे दिया करेंगे।

अतः चौथा भाई भी उनके साथ लगा रहा। रास्ते में एक घना जंगल पड़ा। वहां एक जगह हड्डियों का पंजर था। उसे देखकर उन्होंने अपनी-अपनी विद्या की परीक्षा लेने का निश्चय किया। उनमें से एक ने हड्डियों को सही ढंग से एक स्थान पर एकत्रित कर दिया। वास्तव में ये हड्डियां एक मरे हुए शेर की थीं।

दूसरे ने बड़े कौशल से हड्डियों के पंजर पर मांस एवं खाल का आवरण चढ़ा दिया। उनमें उसमें रक्त का संचार भी कर दिया। तीसरा उसमें प्राण डालकर उसे जीवित करने ही वाला था कि चौथे भाई ने उसको रोकते हुए कहा, ‘तुमने अपनी विद्या से यदि इसे जीवित कर दिया तो यह हम सभी को जाने से मार देगा।

तीसरे भाई ने कहा, ‘तू तो मूर्ख है!मैं अपनी विद्या का प्रयोग अवश्य करुंगा और उसका फल भी देखूंगा।चौथे भाई ने कहा, ‘तो फिर थोड़ी देर रुको। मैं इस पेड़ पर चढ़ जाऊं, तब तुम अपनी विद्या का चमत्कार दिखाना।यह कहकर चौथा भाई पेड़ पर चढ़ गया।

तीसरे भाई ने अपनी विद्या के बल पर जैसे ही शेर में प्राणों का संचार किया, शेर तड़पकर उठा और उन पर टूट पड़ा। उसने पलक झपकते ही तीनों अभिमानी विद्वानों को मार डाला और गरजता हुआ चला गया।

उसके दूर चले जाने पर चौथा भाई पेड़ से उतरकर रोता हुआ घर लौट आया। इसीलिए कहा गया है कि विद्या से बुद्धि श्रेष्ठ होती है।

“दिल”


पत्थर होने सें तो अच्छा था,
चला जाता साथ उनके,
, दिल इस उजरे दयार की जगह,
शान से रहता पहलू में उनके |
                         *   *      *    *
    गम नहीं चले गए वह जिन्दगी सें ,
    अफसोस, मगर की दिल पत्थर कर गए,

    मुस्कराएगा, सोचकर गए हम महफिल में ,
    हॅँसना तो दूर, कमबख्त धरकना भी नहीं |

                      *   *      *    *
कभी जिनकी हॅंसी पर इतराया था,
आज, उन्हीं के पैगामों सें टूट गया |

                   *   *      *    *
जब होश नही था जिन्दगी का,
तो मेरे पास में रहता था,
      जब से आया होश तभी से,
       उनके” दामन में चला गया |
                     *   *      *    *

चेहरे की खिलावट पर जिनकी,
यह मचल-मचल कर जाता था,
       आया जो पैगामें रुसवाँ,
       तो टूकरे-टूकरे हो गया |
               *   *      *    *

पैगामे-वफा का देख लिफाफा,
कली ज्यों खिल जाता था,
       हुआ सामना सूरतसे,तो
       शाम के सूरज ज्यूं डूब गया |
               *   *      *    *

भूमिका



मैं रोया परदेश में भीगा माँ का प्यार
दुख ने दुख से बात की, बिन चिट्ठी बिन तार।
या  बहनें चिड़िया धूप की, दूर गगन में आएँ
हर आँगन मेहमान-सी, पकड़ो तो उड़ जाएँ।

मेरे खाबों के झरोखों को सजाने वाली
तेरे खाबों में कहीं मेरा गुजर है के नहीं
पूछकर अपनी निगाहों से बता दे मुझको
मेरी रातों के मुकद्दर में सहर है के नहीं

चार दिन की ये रफाकत जो रफाकत भी नहीं
उम्र भर के लिए आजार हुई जाती है
ज़िंदगी यूं तो हमेशा से परेशान सी थी
अब तो हर साँस गिरां बार हुई जाती है

मेरी उजड़ी हुई नींदों के शबिस्तानों में
तू किसी खाब के पैकर की तरह आई है
कभी अपनी सी , कभी गैर नज़र आती है
कभी इख्लास की मूरत कभी हरजाई है

प्यार पर बस तो नहीं है मेरा, लेकिन फ़िर भी
तू बता दे के तुझे प्यार करूं या ना करूं

तुने ख़ुद अपने तबस्सुम से जगाया है जिन्हें
उन तमन्नाओं का इजहार करूं या करूं

तू किसी और के दामन की कली है लेकिन

मेरी रातें तेरी खुशबू से बसी रहती हैंतू कहीं भी हो तिरे फूल से आरिज़ कि कसमतेरी पलकें मिरी आंखों पे झुकी रहती हैं

दोस्तों की कमी को पहचानते हैं  
हम दुनिया के गमो को भी जानते हैं
हम आप जैसे दोस्तों का सहारा है 
तभी तो आज भी हँसकर जीना जानते हैं हम
आज हम हैं कल हमारी यादें होंगी






जब हम ना होंगे तब हमारी बातें होंगी 




कभी पलटोगे जिंदगी के ये पन्ने
तब शायद आपकी आंखों से भी बरसातें होंगी |

कोई दौलत पर नाज़ करते हैं 
कोई शोहरत पर नाज़ करते हैं
जिसके साथ आप जैसा दोस्त होवो 
अपनी किस्मत पर नाज़ करते हैं |



हर खुशी दिल के करीब नहीं होती ज़िंदगी ग़मों से दूर नहीं होती
इस दोस्ती को संभाल कर रखना


फूलों से हसीं मुस्कान हो आपकी
चाँद सितारों से ज्यादा शान हो 
आपकी ज़िंदगी का सिर्फ़ एक मकसद हो 
आपका कि आंसमा से ऊँची उड़ान हो आपकी 

वक्त के पन्ने पलटकरफ़िर वो हसीं लम्हे जीने को दिल चाहता है
कभी मुशाकराते थे सभी दोस्त मिलकरअब उन्हें साथ देखने को दिल तरस जाता है

बहन भाई के प्यार



सह शिक्षा ने हमारी लड़कियों को हर क्षेत्र में आगे बढ़ने के समान अवसर दिये है ! अपने भाइयों के मुकाबले किसी भी बात में कमतर नहीं है आज की लड़कियाँ ! पढ़लिख कर आत्मनिर्भर बन रही है इतना ही नहीं, अपने भाइयों की अपेक्षा ज्यादा जिम्मेदार बनकर माता-पिता का सहारा भी बन रही है ! सुबह से लेकर देर रात हर क्षेत्र मे यहाँ तक की मल्टी नेशनल कम्पनियों में भी बखूबी अपना योगदान दे रही है ! वह जमाना अब बीत गया है कभी वह बेटी बनकर पिता के संरक्षण में, पत्नी बनकर पति के संरक्षण में और बुढ़ापे में बेटे के संरक्षण में अपना जीवन बिताती रही है ! आज वह किसी की दया की पात्र नहीं खुद कमाती है मनमुताबिक खर्च करती है अपना हर छोटा बड़ा फैसला खुद करती है ! आज के माता-पिता भले ही अपने बच्चों में कोई फर्क नहीं करते पर जब बहन के हक्क की बात आती है तो, बहन भाई के प्यार भरे रिश्ते में खटास आ ही जाती है ! अभी भी अनेक परिवारों में पैतृक संम्पत्ति पर भाई अपना एकाधिकार समझता है ! अगर गलतीसे बहन अपना हक्क मांगती है तो भाई को बुरा लगता है ! पैतृक संपत्ति को लेकर जब विवाद होता है तो पहले वाला स्नेह, प्यार पल भर में गायब हो जाता है ! कानून ने भले ही दोनों को पैतृक संम्पत्ति पर समान अधिकार दिए हो लेकिन भाइयों को बिलकुल बर्दाश नहीं होता कि, बहने अपना हक्क मांगे ! इसे ध्यान में रखकर माता-पिता को चाहिए कि, अपने जीते जी संपत्ति का समान बंटवारा अपने बच्चों में विल के जरिये कर दे ताकि, आगे चलकर कोई विवाद न हो ! कुछ समाज में आज भी  परंपराओं के नाम पर घर कि इज्जत के नाम पर ऑनर किलींग जैसा भयानक रोग उग्र रूप धारण कर रहा है ! ज्यादातर लड़कियों की हत्या उनके भाइयों ने क़ी हुई है ! जिन बहनों ने रक्षा हेतु अपने भाइयों क़ी कलाई पर राखी बांधी होगी वही हाथ अपने बहनों क़ी हत्या करते हुए एक क्षण भी नहीं काँपे होंगे आश्चर्य होता है! परंपराएँ व्यक्ति के जीवन से ज्यादा नहीं हो सकती ! समय के साथ बदलाव आने चाहिए और उसे स्वीकार करने क़ी मानसिकता हर मनुष्य में होनी चाहिए !

रक्षाबंधन सिर्फ एक दिन भाई क़ी कलाई पर राखी बांधने और प्रेम जताने का पर्व नहीं है ! आज के दिन हर बहन अपने निस्वार्थ मन से अपने भाई के यश क़ी मंगल कामना करे, और हर भाई यह प्रण करे क़ि, अपने बहन को हर वो ख़ुशी हर वो अधिकार दूंगा जिसकी वह हक्कदार है ! तभी सही मायने में रक्षाबंधन का यह त्यौहार सार्थक होगा !  जाते-जाते एक़ प्यारी सी बात .........." सात वर्ष क़ी बहन ने अपने नऊ वर्षीय भाई से कहा ....भैय्या प्यार क्या होता है ? तो भाई ने कहा ....जब तुम मेरे स्कुल बैग से चॉकलेट नीकाल लेती हो, तब मै उस जगह दूसरी चॉकलेट रखता हूँ इसी को प्यार कहते है "! भाई-बहन के प्यार क़ी परिभाषा इससे सुंदर और कोई  हो सकती है क्या भला ?  सोचकर बताना .....

मुसकान

तुम ज़िदगी ना सही
दोस्त बनकर तो ज़िदगी मे आओ
तुम हसी ना सही
मुसकान बनकर तो ज़िदगी मे आओ।

 

तुम हकीकत ना सही
खयाल बनकर तो ज़िदगी मे आओ
तुम नज़र ना सही
याद बनकर तो ज़िदगी मे आओ।


 

तुम दिल ना सही
धड़कन बनकर तो ज़िदगी मे आओ
तुम गज़ल ना सही
सायरी बनकर तो ज़िदगी मे आओ।

 

तुम खुशिया ना सही
गम बनकर तो ज़िदगी मे आओ
तुम पास ना सही
एहसस बनकर तो ज़िदगी मे आओ।

SANTOSH PIDHAULI

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